डाउन सिंड्रोम एक आनुवंशिक विकार है, जिसमें किसी व्यक्ति की कोशिकाओं में एक अतिरिक्त क्रोमोजोम जुड़ जाता है, जिसे क्रोमोजोम 21 नाम से भी जाना जाता है। प्रत्येक क्रोमोजोम में सैकड़ों से हजारों जीन भरे होते हैं। ये जीन डीऑक्सीराइबोज न्यूक्लिक एसिड (डीएनए) से बना होते हैं। जीन में हमारे शरीर से जुड़ी ऐसी जानकारियां होती है जो प्रत्येक व्यक्ति की वृद्धि, विकास और विशिष्ट लक्षणों को निर्धारित करती है। आमतौर पर प्रत्येक कोशिका में क्रोमोजोम के 23 जोड़े होते हैं। लेकिन डाउन सिंड्रोम जैसी जन्मजात स्थिति के साथ पैदा हुए बच्चे नें क्रोमोजोम 21 अतिरिक्त होता है, जो बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास में विलंब का कारण बनता है।
डाउन सिंड्रोम एक ऐसी चिकित्सीय स्थिति है, जिसे रोका नहीं जा सकता है हालांकि इसे जन्म से पहले पता लगाया जा सकता है। आमतौर पर डाउन सिंड्रोम वाले लोगों में विशिष्ट शारीरिक विशेषताएं होती हैं और उनमें कुछ चिकित्सीय स्थितियों का जोखिम ज्यादा होता है। हालांकि, एक व्यक्ति, दूसरे पीड़ित व्यक्ति की तुलना में अलग-अलग कठिनाइयों का सामना करता है। डाउन सिंड्रोम से पीड़ित कुछ लोगों को अपने पूरे जीवन में मेडिकल सुविधाओं की जरूरत पड़ती है लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो हेल्दी जीवन जीते हैं।
डाउन सिंड्रोम के प्रकार
ट्राइसॉमी 21 – इस प्रकार का डाउन सिंड्रोम अतिरिक्त क्रोमोजोम 21 की असामान्य उपस्थिति के कारण होता है। कुल 95% मामले इसी के होते हैं।
मोजोसिस्म- इस प्रकार का डाउन सिंड्रोम कुछ कोशिकाओं में क्रोमोजोम 21 की अतिरिक्त कॉपी की उपस्थिति के कारण होता है, जबकि अन्य कोशिकाओं में सामान्य 23 पेयर क्रोमोजोम होते हैं। ऐसा सिर्फ 1% फीसदी मामलों में ही होता है।
ट्रांसलोकेशन- इस प्रकार के डाउन सिंड्रोम वाले लोगों की कोशिकाओं में मौजूद एक अतिरिक्त क्रोमोजोम दूसरे क्रोमोजोम के साथ जुड़ा हुआ होता है। अतिरिक्त क्रोमोजोम आंशिक या फिर पूर्ण रूप से विकसित हो सकता है। ऐसा सिर्फ 4% मामलों में ही होता है। यह एक ऐसा एकमात्र प्रकार का डाउन सिंड्रोम है, जो बच्चे को माता-पिता से प्राप्त होता है।
डाउन सिंड्रोम के लक्षण
डाउन सिंड्रोम के लक्षण आमतौर पर एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में अलग-अलग होते हैं। हालांकि, इस विकार से पीड़ित व्यक्ति में आमतौर पर शारीरिक उपस्थिति लगभग-लगभग एक समान ही होती है जैसे-
- आंखों का ऊपर उठा हुआ या फिर तिरछा हुआ दिखाई देना
- जीभ का ज्यादा उभार होना
- चेहरे का चपटा होना
- कान, मुंह या फिर सिर का छोटा होना
- पैदा होने के साथ ही छोटी गर्दन
- छोटी उंगलियां
- छोटे हाथ या पैर
- मांसपेशी का खराब टोन
डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों के विकास में देरी के कारण उन्हें बैठने, खड़े होने और चलना जैसी चीजों को सीखने में अन्य बच्चों की तुलना में अधिक समय लगता है। डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों में आगे जाकर ये समस्याएं देखने को मिलती हैः
- बच्चों को कोई भी चीज सीखने में ज्यादा समय लगता है।
- ध्यान न देने की समस्या
- बोलने में दिक्कत
- फैसला लेने में हिचकिचाहट
- हठ-जिद्द
- जल्दी गुस्सा आ जाना
- नींद न आने की समस्या
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डाउन सिंड्रोम के कारण
क्रोमोजोम 21 का एक अतिरिक्त होना ही डाउन सिंड्रोम का एकमात्र ज्ञात कारण है। हालांकि, इस स्थिति से पीड़ित लोगों में ऐसा क्यों होता है और कौन से कारण इसके लिए जिम्मेदार हैं अभी भी अज्ञात हैं। डाउन सिंड्रोम वाले बच्चे के लिए जोखिम कारक के रूप में ज्ञात कारकों में से एक है गर्भवती होने के समय मां की उम्र। यह पाया गया है कि डाउन सिंड्रोम से प्रभावित होने वाले बच्चे की संभावना उन महिलाओं में अधिक होती है जो 35 वर्ष की आयु के बाद गर्भवती होती हैं। चूंकि ज्यादातर महिलाएं 35 वर्ष की आयु से पहले ही बच्चे को जन्म दे देती हैं इसलिए डाउन सिंड्रोम के ज्यादातर मामले कम उम्र की महिलाओं द्वारा जन्म दिए जाने वाले बच्चे में होते हैं।
डाउन सिंड्रोम की रोकथाम
डाउन सिंड्रोम जैसी स्थिति को रोका नहीं जा सकता हालांकि, माता-पिता बच्चों में विकार के जोखिम को कम करने के लिए उपाय जरूर कर सकते हैं। गर्भावस्था के समय महिलाओं की आयु, जो कि एक संभावित जोखिम कारक है, आप 35 वर्ष की आयु से पहले फैमिली प्लानिंग कर जोखिम को कम कर सकते हैं।
जिन महिलाओं को डाउन सिंड्रोम वाले बच्चे होने का खतरा होता है, उन्हें आमतौर पर एक जेनेटिक काउंसलर के पास भेजा जाता है। वह आपको भविष्य में गर्भधारण के जोखिम के बारे में बताते हैं और विकार का पता लगाने के लिए उपलब्ध विभिन्न डायग्नोस टेस्ट के बारे में बताते हैं।
जीवन शैली में बदलाव कर ठीक करें डाउन सिंड्रोम
डाउन सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्ति को उसके अपने जरूरी काम करने में आसानी के लिए मौजूदा वक्त में कई सहायक उपकरण उपलब्ध हैं। ऐसे कई सहायक उपकरण हैं, जिसमें विशेष टचस्क्रीन कंप्यूटर, मोडिफाइड पेंसिल आदि शामिल हैं।
डाउन सिंड्रोम होने पर कठिनाइयां
डाउन सिंड्रोम से पीड़ित लोग भी बेहतर रिश्ते रखने, स्कूल या काम पर जाने और किसी भी अन्य व्यक्ति की तरह हेल्दी जीवन जीने में सक्षम हैं। इस विकार से पीड़ित अधिकांश पुरुष बच्चे पैदा करने में असमर्थ होते हैं जबकि 2 में से केवल 1 महिला ही बच्चे को जन्म दे पाती है। इस विकार से पीड़ित कई लोग 60 वर्ष या अधिक की आयु तक जीवित रहते हैं।
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- कान का संक्रमण
- बहरापन
- नेत्र रोग
- नींद के दौरान सांस लेने में कठिनाई
- दमा
- जन्म के बाद से ही ह्रदय संबंधी समस्या का दोष
- थायरॉइड की समस्या
- फेफड़ों को होने वाली अपरिवर्तनीय क्षति
- बचपन में ल्यूकेमिया
- गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल समस्याएं जैसे सीलिएक रोग, कब्ज, आदि।
- प्रजनन क्षमता में कमी
- ऑटिज्म (कम्युनिकेशन और सामाजिक कौशल में चुनौतियां)
- अल्जाइमर रोग (बुढ़ापे में भूलने की दिक्कत)
समय से पहले बुढ़ापा आना भी इस विकार से जुड़ी एक अन्य चिकित्सा समस्या है, जो कि हाई कोलेस्ट्रॉल, याददाश्त खो जाना, डिमेंशिया, डायबिटीज और जल्दी मेनोपॉज जैसी स्वास्थ्य समस्याओं से जुड़ा हुआ है।
डाउन सिंड्रोम की जांच
गर्भावस्था के दौरान स्क्रीनिंग टेस्ट कर ये पता लगाया जा सकता है कि बच्चे को डाउन सिंड्रोम का खतरा है या नहीं। कुछ मामलों में, बच्चा पूरी तरह से स्वस्थ हो जाता है जबकि स्क्रीनिंग के दौरान मां का टेस्ट पॉजिटिव होता है। गर्भावस्था के दौरान किए जाने वाले स्क्रीनिंग टेस्ट में शामिल हैं:
न्यूकल ट्रांसलेंसी टेस्टिंग- इस टेस्ट में गर्भ के अंदर बच्चे की गर्दन के पिछले हिस्से में मौजूद तरल पदार्थ का पता लगाने के लिए गर्भावस्था की पहली तिमाही के दौरान अल्ट्रासाउंड किया जाता है। इसके अलावा मां के खून की जांच भी की जाती है।
ट्रिपल / क्वाडरुपल स्क्रीन- यह टेस्ट गर्भावस्था की दूसरी तिमाही के दौरान मां के रक्त में कुछ विशिष्ट चीजों को देखने के लिए किया जाता है।
इंटीग्रेटेड स्क्रीन- इसमें पहली और दूसरी तिमाही के दौरान ऊपर लिखे किए गए सभी टेस्ट शामिल होते हैं।
जेनेटिक अल्ट्रासाउंड- यह अल्ट्रासाउंड गर्भावस्था के 18-20 सप्ताह के दौरान बच्चे में शारीरिक असामान्यताओं का पता लगाने के लिए किया जाता है। इसके साथ ही इसमें ब्लड टेस्ट भी कराया जाता है।
सेल-फ्री डीएनए- इस टेस्ट में मां के रक्त में मौजूद बच्चे के डीएनए का अध्ययन किया जाता है। यह आमतौर पर पहली तिमाही में किया जाता है।
जब इन स्क्रीनिंग टेस्ट में गर्भावस्था के दौरान बच्चे में डाउन सिंड्रोम के जोखिम की पहचान हो जाती है तो डॉक्टर इस स्थिति के जोखिम की पुष्टि करने के लिए इन डायग्नोस टेस्ट की सलाह देते हैं। इनमें शामिल हैंः
पेरक्यूटेनियल यूमबिलिक्ल कोर्ड सैम्पलिंग- यह टेस्ट सबसे सटीक परिणाम देता है। इस टेस्ट में गर्भावस्था के 18 से 22 सप्ताह के दौरान गर्भ परीक्षण में मौजूद बच्चे के रक्त का एक नमूना लिया जाता है।
कोरियोनिक विलस सैंपलिंग- यह टेस्ट गर्भावस्था के 14 से 18 सप्ताह में किया जाता है। इस टेस्ट में गर्भ के भाग से नमूना लिया जाता है जिसे प्लेंसेंट्रा कहते हैं।
एमनियोसेंटेसिस- यह टेस्ट गर्भावस्था के 15 से 20 सप्ताह के बीच किया जाता है। इस टेस्ट में गर्भ के अंदर तरल पदार्थ का सैंपल टेस्ट के लिए लिया जाता है।
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बता दें कि ये सभी डायग्नोस्टिक टेस्ट गर्भपात के एक मामूली जोखिम से जुड़े हैं। इसलिए, ये टेस्ट केवल उन महिलाओं पर किया जाता है, जिन्हें आनुवांशिक बीमारियों से ग्रस्त होने का खतरा अधिक होता है। डॉक्टर जन्म के बाद बच्चे में डाउन सिंड्रोम के शारीरिक लक्षणों को तलाशते हैं। इसका पता लगाने के एक करियोटाइप (karyotype) टेस्ट किया जाता है, जिसमें डॉक्टर एक माइक्रोस्कोप के जरिए बच्चे के रक्त के नमूने को कोशिकाओं में क्रोमोजोम 21 की अतिरिक्त रूप की उपस्थिति को ढूंढता है।
डाउन सिंड्रोम का इलाज
डाउन सिंड्रोम के साथ पैदा होने वाले कई लोगों में आगे चलकर कोई बड़ा जन्म दोष नहीं दिखाई देता है लेकिन कुछ लोगों में कम से कम एक जन्म दोष तो होता ही है, या फिर आगे चलकर सामने आता है। इस विकार के साथ पैदा होने वाले कई बच्चों में कम से लेकर हल्की-फुल्की बौद्धिक विकलांगता देखने को मिलती है। हालांकि डाउन सिंड्रोम के लिए कोई मानक उपचार नहीं है इसलिए आवश्यक उपचार स्थिति के आधार पर हर दूसरे व्यक्ति में अलग-अलग होता है, जिसे आमतौर पर दवा या फिर अन्य साधनों के उपयोग से प्रबंधित किया जा सकता है। इसलिए जरूरी है कि अगर बच्चे को स्वस्थ और बेहतर जीवन जीने में मदद करनी है तो इन थेरेपी की सलाह दी जाती हैः
- व्यवहार चिकित्सा- बच्चे के जिद्दी-हठी व्यवहार और भावनाओं को ठीक करने में मदद करती है।
- ऑक्यूपेशनल थेरेपी- बच्चे को रोजमर्रा के कार्यों के लिए आवश्यक कौशल सीखने में मदद करती है।
- स्पीच थेरेपी- स्पीच थेरेपी भाषा और आपके कम्युनिकेशन स्किल को सुधारने के लिए प्रयोग की जाती है।
- फिजिकल थेरेपी- ये थेरेपी शरीर के संतुलन और पोश्चर को बेहतर बनाने के लिए की जाती है। साथ ही ये ताकत बढ़ाने में भी मदद करती है। के लिए। ये खराब मांसपेशियों के आकार विशेष रूप से बच्चों के लिए होती है।